नई पुस्तकें >> शीशे के मकान वाले शीशे के मकान वालेराही मासूम रजा
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राही की उर्दू कविता को हिंदी पाठकों तक पहुँचाने का एक प्रयास, जिसमें शब्दकोश के साथ उनके भावों की गहराई को समझा जा सकता है।
यह संग्रह 1965 में छपे उर्दू काव्य-संग्रह का लिप्यंतरण है। अपनी तमाम सरलता के बावजूद इसके बहुत-से अल्फ़ाज ऐसे हैं, जो पट से समझ में न भी आएँ। राही की बड़ी इच्छा थी कि ऐसे लफ़्जों के लिए भी हिन्दी में माहौल हो। बकौल राही ‘‘क्या मेरी तक़दीर यही है कि मैं अपने घर में अजनबी बना रहूँ।’’ हालाँकि राही शायरी को समझने के लिए फुटनोटों के विरूद्ध थे परन्तु फिर भी इस पुस्तक में ही ऐ छोटा सा शब्दकोश दिया गया है, पता नहीं राही इसे पसन्द करते या नहीं। परन्तु आज के सन्दर्भों में यह आवश्यक महसूस हो रहा है।
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